दश महाविद्याओं में महाशक्तिशाली देवी तारा अक्षोभ्य पुरुष और उसकी
महाशक्ति है। मुख्यतया रात्रि बारह बजे से लेकर सूर्योदय तक के समय में मां
महाकाली की सत्ता रहती है। इसके पश्चात् महाविद्या तारा का साम्राज्य स्थित
रहता है। जब तक अन्नाहुति होती रहती है तारा शान्त रहती है। अन्नादि के अभाव में वही शक्ति उग्रतारा बनकर विश्व का नाश कर डालती है। महाकाली महाप्रलय की अधिष्ठात्री देवी है तो तारा सूर्यप्रलय की! प्रलय करना दोनों देवियों का समान धर्म है।
उग्रतारा की चारों भुजाओं में सर्प लिपटे रहते हैं। प्रलयकाल में विषैली गैसों
से ही देवी तारा विश्व का संहार करती है। शव रूप विश्व केन्द्र में प्रतिष्ठित है।
अन्नाहुति बन्द होने से सौर अग्नि प्रबल वेग से सांय-सांय करने लगती है; यही
देवी तारा का अट्टहास है। चन्द्रमा, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि का सब रस सूख जाता
है। सबका रस भाग उग्रतारा पी जाती है। उग्रतारा या महातारा या तारा का स्वरूप
‘नील विशाल पिंगल जटाजूटैक नागैर्युता‘ कहा गया है। यह महाशक्ति इसी रूप
में विश्व का संहार करने को सदा उद्यत रहती है।
मनुष्य जब विपदाओं में पड़ा होता है, तब वह अपने कर्तव्य-कर्म का
पालन नहीं कर सकता। ऐसे में वह अशक्त और निःसहाय हो जाता है। तब उसे
अन्य देवी-देवता भी बचा नहीं पाते। उस समय मां जगदम्बा ही ‘तारा‘ रूप से
मनुष्यों की रक्षा करती है। मां तारा को भगवती विपदहारिणी भी कहते हैं। वे
अपने सच्चे भक्तों को कष्टों से बचाने को सदा तैयार रहती हैं। मां तारा की पूजा
तीन प्रकार से होती है- सात्विक, राजस और तामस। इनमें कामना रहित सात्विक
पूजा ही सर्वश्रेष्ठ है।
साधक की कामना के अनुसार ही मां तारा को तारिणी, तरला, त्रिरूपा,
तरणी, रजोरूपा, तमोरूपा, महामाया, कालस्वरूपा, परानन्दा आदि नामों से पुकारा
जाता है।
ज्ञान-विज्ञान एवं सुख-सम्पदा की प्राप्ति के लिए देवी तारा की साधना एवं
• पूजा-उपासना मन्त्रसिद्धि अनुष्ठान आदि किए जाते हैं। शुभ तिथि, शुभ दिन, शुभ मुहूर्त एवं पर्व कालों में कालरात्रि, मोहरात्रि, महारात्रि, होली, दीपावली, शिवचतुर्दशी अथवा ग्रहणकाल में साधन-सिद्धि का आरम्भ किया जाता है। श्मशान, शिवमन्दिर, देवी का मन्दिर अथवा एकान्त स्थान साधना का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। घर के किसी अलग एकांत कक्ष में या अलग कोने में रात्रि के तृतीय प्रहर में साधना का उपयुक्त समय होता है। यह सब न हो सके तो जैसी सुविधा हो उसी के श्रद्धाभक्ति से जब जैसा समुचित प्रबन्ध हो जाए, मां तारा की साधना करें। इसके साथ ही ध्यान एवं कवच आदि का पाठ करें।
साधक को स्नान करके, शुद्ध होकर, स्वच्छ वस्त्र पहनकर, पूजा का सामान
पास में रखकर, ऊनी या सूती आसन पर विराजमान होकर साधना आरंभ करनी
चाहिए। मृग चर्म या व्याघ्र चर्म का आसन सर्वोत्तम होता है। माला, पुष्प, आसन,
और वस्त्र सब लाल रंग के सर्वोत्तम होते हैं।
पुरश्चरण तीन लाख मन्त्र जप का है। पुरश्चरण चालीस दिन में करना हो
तो प्रतिदिन या रात में अस्सी माला जप करने से तीन लाख बीस हजार के लगभग जप हो जाएगा। जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
विधान तो दशांश का ही होता है, किन्तु किसी में कमी हो जाए तो उसका
दस गुना जप करने से वह कमी पूरी हो जाती है। आसन पर बैठकर ही देवी की
षोडशोपचार पूजा करें, ध्यान करें, मन्त्र जप करें। यथासंभव कवच का पाठ भी नित्य करें अथवा आरम्भ व समाप्ति पर तथा हवन, तर्पण और मार्जन वाले दिन अवश्य करें
तारामन्त्र – (१) ह्रीं श्रीं हूँ फट् | (2) ओम् ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् । ३) श्रीं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ।
तीन प्रकार के मन्त्र कहे गये हैं, इसमें चाहे जिस किसी मन्त्र से उपासना करें ।
ध्यान
प्रत्यालीढपदां घोरां मुण्डमालाविभूषिताम् ।
खव लम्बोदरीं भीमां व्याघ्रचर्मावृतां कटौ ॥
नवयौवनसम्पन्नां पञ्चमुद्राविभूषिताम् ।
चतुर्भुजां ललज्जिह्वां महाभीमा वरप्रदाम् ॥
खड्गकर्तृ-समायुक्त-सव्येतर – भुजट्टयाम् ।
कपोलोत्पलसंयुक्त-सव्यपाणि-युगान्विताम् ॥
पिङ्गग्रैकजटां ध्यायेन्मौलावक्षोभ्यभूषिताम् ।
बालार्क – मण्डलाकार- लोचनत्रय – भूषिताम् ॥
ज्वलच्चितामध्यगतां घोरदंष्ट्राकरालिनीम् ।
स्वावेशस्मेरवदनां ह्यलंकारविभूषिताम् ।
विश्वव्यापकतोयान्तः श्वेतपद्मोपरि-स्थिताम् ॥
तारा देवी एक पद (पाँव) आगे किये हुए वरीपद से विराजमान हैं और वे घोररूपिणी,मुण्डमाला से विभूषित, खर्वा, लम्बोदरी, भीमा, व्याघ्र चर्म पहिरनेवाली, नवयुवती, पञ्चमुद्राविभूषित, चतुर्भुज, चलायमान जिह्वा, महाभीमा एवं वरदायिनी हैं। इनके दक्षिण (दाहिने) दोनों हाथों में खड्ग और कैंची तथा वाम (बायें) दोनों हाथों में कपाल और उत्तालविद्यमान है। इनकी जटायें पिंगल वर्ण, मस्तक में क्षोभरहित शोभित और तीनों नेत्र तरुण-अरुण के समान रक्तवर्ण हैं। यह जलती हुई चिता में स्थित, घोरद्रष्ट्रा, कराला,स्वीय आवेश में हास्यमुखी, सब प्रकार के अलंकारों से अलंकृत (विभूषित) औरविश्वव्यापिनी जल के भीतर खेत पद्म पर स्थित हैं।
कवच
बालार्कमंडल भासां चतुर्बाहां त्रिलोचनाम्।
पाशांकुशशरांश्चापान् धारयंतीम् शिवां भजे ॥
ॐ पूर्वे मां भैरवी पातु बाला मां पातु दक्षिणे।
मालिनी पश्चिमे पातु त्रासिनि उत्तरेऽवतु ॥
ऊर्ध्व पातु महादेवि महात्रिपुरसुंदरी।
अद्यस्तात पातु देवेशि पाताल तल वासिनि ॥
आधारे वाग्भवः पातु कामराजस्तथा हृदि ।
डामरः पातु मां नित्यं मस्तके सर्वकामदः ।
ब्रह्मरंधे सर्वगात्रे छिद्रस्थाने च सर्वदा।
महाविद्या भगवति पातु मां परमेश्वरि ॥
ऐं ह्रीं ललाटे मां पातु क्लीं क्लू सश्चनेत्रयोः ।
नासायां मे कर्णयोश्च द्रीं हैं द्रां चिबुके तथा ॥
सौः पातु गले हृदये स ह्रीं नाभिदेशके।
कलहीं क्लीं गुह्यदेशे स ह्रीं पादयोस्तथा ॥
सहीं मां सर्वतः पातु सकली पातु संधिषु ।
जले स्थले तथाऽकाशे दिक्षुराजगृहे तथा ॥
हं क्षेमा त्वरिता पातु सहीं सकलीमनोभवा ।
हंसः पायां महादेवि परं निश्छल देवता ॥
विजया मंगल दूती कल्याणि भगमालिनि ।
ज्वाला च माजिनि नित्या सर्वदा पातु मां शिवा ॥