काली सिद्धि

महाकाली परात्पर नाम से प्रसिद्ध विश्वातीत महाकाल की शक्ति का नाम है। शक्ति सर्वथा शक्तिमान से भिन्न नहीं है। एक ऐसा समय भी था, जब कुछ भी नहीं था, केवल अंधकार मात्र था। वस्तुतः वह अप्रज्ञात तत्व ही महाकाल है।

आगम शास्त्रों में महाकाली को प्रथमा, आद्या आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। सृष्टि से पहले इसी महाविद्या का साम्राज्य था।

मैत्री निदान शास्त्र से स्वरूप का ज्ञान होता है। काला रंग शोक का सूचक है।

लाल रंग खतरे का सूचक है। इसी प्रकार श्वेतवर्ण कीर्ति का, यश का, सूचक है। पृथ्वी का सूचक कमल है। मोह शक्ति की सूचक सुरा है। लक्ष्मी का निदान हाथी है। विजय की निदान ध्वजा है। संहारशक्ति का कटा मस्तक, प्रकाश का रंग सफेद है और अन्धकार का काला है। हरा वर्ण पानी और शान्ति का द्योतक है। देवी के स्वरूपों को भी इसी प्रकार निदान द्वारा पहचानना चाहिए।

शिव (काल) की पत्नी अर्थात् मां काली भगवती दुर्गा की सबसे प्रबल

अंश है। उसकी शक्ति के बिना तो महाकाल शिव भी शव के समान हैं।

महाकाली के रौद्र रूप उसकी भयंकरता एवं वीभत्सता प्रदर्शित करते हैं, वहीं

उसके सौम्य रूप भक्तों को मुग्ध कर देते हैं।

महाकाली का सम्बन्ध प्रलय रात्रि के मध्यकाल से है। शिव उस समय शव

रूप में पड़े हैं, महाकाली उन पर खड़ी है। प्रलय रात्रि रूपी संहारकारिणी शक्ति को इसी स्वरूप में बतलाने के लिए भयानक आकृति का निदान माना गया है। जिस प्रकार शत्रुपक्ष की सेना का संहार करके योद्धा अट्टहास करता है। उसी प्रकार मां काली भी अट्टहास कर रही है। नाश करने का प्रतीक खड्ग है। किन्तु साधकों को अभय पद देने वाली उनकी अभय मुद्रा है। सारा जगत् जब श्मशान बन जाता है, तब इस महाशक्ति का विकास होता है।

महामाया आद्या शक्ति संतप्त संसार की रक्षा का कार्य करती है तब वही काली तारा आदि दस रूप धारण करती है। इन्हीं दस रूपों को दश महाविद्याएं

कहा जाता है और इन्हीं से मां काली के असंख्य रूप प्रगट हुए हैं।

मां काली धधकती हुई अग्नि की प्रखर ज्वाला में रहती है। उसके शरीर

का गठन दृढ़ एवं हृष्ट-पुष्ट है। उसने शव की गर्दन पर बायां पैर और टांगों पर

दायां पैर रखा है। वह सुस्थिर व मौन रूप में भक्तों के कष्ट, विपदा, चिन्ता का

निवारण करती है तथा भक्तों के तीनों प्रकार के तापों को ज्वाला में जला देती है।

पुराण और तन्त्र ग्रन्थों में काली के आठ स्वरूपों का वर्णन है, जिनमें दक्षिण

काली, भद्रकाली, गुह्य काली, महाकाली आदि प्रमुख हैं। इनमें दक्षिण काली

और भद्रकाली की पूजा सबसे अधिक प्रचलित है।

शुम्भ नामक दैत्य का वध करने के लिए देवताओं की प्रार्थना पर महामाया

आद्याशक्ति के शरीर कोष से कृष्ण वर्णा कालिका या काली का आविर्भाव हुआ

था। काल के ऊपर जो अवस्थित है, वही मां काली है। काली का वर्ण काला क्यों

है? काले रंग में सब रंग समा जाते हैं। जहां सब रूप और अरूप समा जाते हैं वही महाकाल है और उसकी शक्ति होने के कारण काली कृष्ण वर्णा है।

कोई भी आवरण महाशक्ति को ढांप नहीं सकता, प्रयास करने पर भी छिपा

नहीं सकता। इसी कारण मां काली दिगम्बरा है। श्मशान जिसका निवास स्थल

है, शिव जिसके पति हैं, उसके गले में हीरे-मोती की माला न थी, बल्कि उसका

अलंकार तो नरमुण्डों की माला थी। किन्तु कई ग्रन्थों में यह भी बताया गया है कि यह मुण्डमाला नहीं वर्णमाला है अर्थात् अक्षर पुरुष की अक्षर वर्णमाला है।

मां काली जितनी संहारकारिणी है उतनी ही आनन्दमयी भी है। उसके दो

हाथों में वर मुद्रा तथा अभय मुद्रा यही प्रदर्शित करती है कि मां अपने भक्तों को

वराभयकरा है। दस विद्याओं में काली सर्वप्रथम है। विलोम क्रम से सबसे अन्त

में होने पर भी सबसे ऊपर है।

अन्य अपेक्षाकृत छोटी साधनाओं को करने के बाद ही साधक इस योग्य

बन पाता है कि वह महाकाली की साधना कर सके। यही कारण है कि महाकाली की साधना बाद में करने का विधान है। मां काली की पूजा-उपासना चाहे सबसे पहले करो या सबके बाद में, कल्याण ही कल्याण है।

पूजा भी तीन प्रकार की होती है- षोडशोपचार, पंचोपचार और मानसोपचार ।

मानसोपचार पूजा में किसी बाहरी सामान की आवश्यकता नहीं है, सब कुछ मन के अन्दर, ध्यान में मां का स्वरूप रखकर सब पूजा के अंग ध्यान में ही किए जातेहैं। यह तभी होती है जब ध्यान में मां का स्वरूप आ जाए और ध्यान जमकर धारणा बन जाए। यह पूजा सर्वोत्कृष्ट पूजा है।

महाकाली की पूजा सर्वकामनाओं की पूर्ति के लिए की जाती है, विशेष

रूप से अत्याचारी शत्रु से रक्षा व त्राण पाने के लिए साधकजन महाकाली की साधना करते हैं। माया के जाल से छूटकर मोक्ष प्राप्ति के लिए भी महाकाली की

की जाती है। संसारी जीव असुरों, दुष्टों से रक्षा के लिए मां काली की पूजा करते हैं।

वाद-विवाद, मुकदमे में जीतने के लिए, प्रतियोगिता में प्रतिद्वन्द्वी को परास्त

करने के लिए तथा दौड़, कुश्ती आदि युद्ध में, मल्लयुद्ध में किसी भी प्रकार के

युद्ध अथवा शास्त्रार्थ में विजय के लिए काली की उपासना तुरन्त फल देती है

सर्वप्रथम मन्त्र को पुरश्चरण विधि से सिद्ध करना होता है, फिर समय पड़ने पर

अवसर के अनुसार इसका कुछ देर जप करके उसका तुरन्त प्रभाव देखा जाता है 

मां महाकाली साधना के लिए सबसे उपयुक्त स्थान तो श्मशान को ही माना

गया है। वहां प्रबन्ध न हो सके तो शिव मन्दिर या देवी के मन्दिर में साधना करनी चाहिए। यह भी न हो सके तो पहले दिन की साधना श्मशान में दिन में, शिव या शक्ति के मन्दिर में आरम्भ करके बाद की साधनाएं घर में भी की जा सकती हैं।घर में कोई अलग कक्ष का प्रबन्ध हो जाए तो बहुत अच्छा है, नहीं तो घर का एक कोना अलग करके वहीं पर अपनी पूजा का सामान रख लेना चाहिए। घर में परिवार के अन्य लोग हैं तो रात के एकान्त में पूजा करें।

सर्वोत्तम समय तो रात्रि का तीसरा पहर साधना-पूजा का बारह से तीन बजे

का ही है। ऐसे समय में पूजा करने से साधना का फल शीघ्र मिलता है।

काली ध्यानम्

करालवदनां धोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।

कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमालाविभूषिताम् ॥

सद्यश्छिन्नाशिरः खड्गवामाधोर्द्ध्वकराम्बुजाम् ।

अभयं वरदं चैव दक्षिणाधोद्र्ध्वपाणिकाम् ॥

महामेघप्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् ।

कण्ठावसक्त-मुण्डाली गलदुधिर चर्चिताम् ॥

कर्णावतंसतानीत – शवयुग्म – भयानकाम् ।

घोरदंष्ट्राकरालास्यां पीनोन्नतपयोधराम् ॥

शवानां करसंघातैः कृतकाञ्चीं हसन्मुखीम् ।

सृक्कृच्छटा-गल  द्रक्त- धराविस्फूरिताननाम् ॥

घोररावां महारौद्री श्मशानालयवासिनीम् ।

बालक-मण्डलाकार – लोचनत्रितयान्विताम् ॥

दत्तुरां दक्षिणव्यापि मुक्तालम्बिकचोच्चयाम् ।

शवरुपमहादेव – हृदयोपरि संस्थिताम् ॥

शिवाभिघैररावाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् ।

महाकालेन च समं विपरीतरतातुराम् ॥

सुखप्रसन्नवदनां स्मेराननसरोरुहाम् ।

एवं संचिन्तयेत् कालीं सर्वकामसमृद्धिदाम् ॥

 

कालिका देवी भयंकर मुखवाली, घोरा,बिखरे केशों वाली, चतुर्भुजा तथा मुण्डमाला से अलंकृत हैं। उनकी दक्षिण ओर के दोनों हाथों में अभय और वरमुद्रा विद्यमान हैं ।वाम ओर के दोनों हाथों में तत्काल छेदन किए हुए मृतक का मस्तक एवं खड्ग है ।कण्ठ में मुण्डमाला से देवी गाढ़े मेघ के

समान श्यामवर्ण, दिगम्बरी, कण्ठ में स्थित मुण्डमाला से टपकते रुधिर द्वारा लिप्त शरीर वाली, घोरदंष्ट्रा, करालवदना और ऊँचे स्तन वाली हैं। उनके दोनों श्रवण (कान) दो मृतक मुण्डभूषणरूप से शोभा (कान) दो मृतक मुण्डभूषणरूप से शोभा पाते हैं, देवी के कमर में मृतक के हाथों की करधनी विद्यमान है, वह हास्य मुखी हैं। उनके दोनों होठों से रक्त की धारा क्षरित होने के कारण उनका वदन कम्पित होता है, देवी घोर नादवाली, महाभयंकरी और श्मशानवासिनी हैं, उनके तीनों नेत्र तरुण अरुण की भाँति हैं।बड़े बड़े दाँत और लम्बायमान केशकलाप से युक्त हैं, वह शवरूपी महादेव के हृदय पर स्थित

हैं, उनके चारों ओर रख गीदड़ी भ्रमण करती है। देवी महाकाल के सहित विपरीत विहार में आसक्त हैं, वह प्रसन्नमुखी, सुहास्यवदन और सर्वकाम-समृद्धिदायिनी हैं। इस प्रकार उनका ध्यान करें ।

मंत्र

ॐ क्रीं क्रां क्रीं हुं हुं हुं दक्षिण कालिके

क्रीं क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ।

कवच

शिरो मे कालिका पातु, क्रींकारकाक्षरी परा।

क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटं च, कालिका खङ्गधारिणी ॥

हुं हुं पातु नेत्रयुग्मं ह्रीं ह्रीं पातु श्रुतिं मम ।

दक्षिणे कालिके पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरी ॥

क्रीं क्रीं क्रीं रसना पातु हूं हूं पातु कपोलकम् ।

वदनं सकलं पातु ह्रीं ह्रीं स्वाहा स्वरूपिणी ॥

द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्या सुखप्रदा।

खङ्गं मुण्डधरा काली सर्वाङ्गमभितोऽवतु ॥

क्रीं हुं ह्रीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा हृदयं मम ।

ऐं हुं ॐ ऐं स्तनद्वयं ह्रीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम्।

अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तृका ।

क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रीं करौ पातु षडक्षरी मम ॥

क्रीं नाभिमध्यदेशं च दक्षिणे कालिकेऽवतु ।

क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठं तु कालिका सा दशाक्षरी ॥

ही क्रीं दक्षिणे कालिके हुं ह्रीं पातुं कटिद्वयम् ।

काली दशाक्षरी विद्या स्वाहा पातुरुयुग्मकम् ॥

ॐ ह्रीं क्रीं मे स्वाहा पातु कालिका जानुनी मम।

काली हन्नाम विद्येयं चतुर्वर्गफलप्रदा ॥

क्रीं ह्रीं ह्रीं पातु गुल्फं दक्षिणे कालिकावतु ।

क्रीं हुं ह्रीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम ॥

खड्गमुंडधरा काली वरदाभयहारिणी ।

विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वांगमभितोऽवतु ॥

काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला विरोधिनि।

 विप्रचित्ता तथोग्रोप्रभा दीप्ताधनत्विषा ॥

नीला घना बालिका च माता मुद्रामित प्रभा।

एताः सर्वाः खड्गधरा मुंडमाला विभूषिताः ॥

रक्ष तु मां दिक्षुदेवि ब्राह्मी नारायणी तथा ।

माहेश्वरि च चामुंडा कौमारी चापराजिता ॥

वाराही नारसिंही च सर्वाश्चामित भूषणाः ।

रक्ष तु स्वायुद्यैर्दिक्षु मां विदिक्षु यथा तथा ॥