Bhuvneshwari

भुवनेश्वरी

भगवती भुवनेश्वरी शिव के समस्त लीला-विलास की सहचरी और निखिल
प्रपंचों की आदिकारण, सबकी शक्ति व सभी का नाना प्रकार से पोषण करने
वाली हैं। इनका स्वरूप सौम्य और अंगकांति अरुण है। भक्तों को अभ्य एवं
समस्त सिद्धियां प्रदान करना देवी का स्वाभाविक गुण है।
माता भुवनेश्वरी को ललिताभी कहते हैं। इसलिए ललिता शब्द से जब
त्रिपुरसुंदरीसमझी जाती हैं, तब वह श्री विद्या लालिताहोती हैं और जब वही
ललिता पद से भुवनेश्वरी की बोधक होती हैं तो भुवनेश्वरी ललितासमझी
जाती हैं। इनके भैरव सदाशिव हैं।
चौरासी लाख योनियों में जितनी भी प्रजा है, उन सबका भरण-पोषण
भुवनेश्वरी करती हैं। तात्पर्य यह है कि देवी की साधना से शक्ति, बल, सामर्थ्य,
संपदा, वैभव, विद्या, भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्यादि की प्राप्ति होती है। देवी अपने
तेज़ से सदा दैदीप्यमान रहती हैं। प्रलयकाल में जो भुवन जलमग्न हो गए थे वही
आज देवी की कृपा से विकासशील हो रहे हैं मानो देवी की कृपा दृष्टि हो रही है।
देवी भुवनेश्वरी के मन्त्र में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती- इन तीनों
ही महादेवियों के बीज मन्त्र हैं।                                                                                               इसका जप करने से अथवा उचित कामना को लेकर अनुष्ठान करने से या केवल मन्त्र सिद्धि करने पर भी सफलता और इष्ट की प्राप्ति होती है। भगवती भुवनेश्वरी के खुले नेत्रों से
दर्शन तो कोई विरला महापुरुष ही कर पाता है, किन्तु अन्तर में, ध्यान में या स्वप्न
में भी दर्शन हो जाएं तो साधक का जीवन सफल हो जाता है। कोई वैरी-दुश्मन
अकारण अत्याचार कर रहा हो तो देवी की प्रार्थना करनी चाहिए। आर्त मनुष्य की
पुकार दयामयी भगवती भुवनेश्वरी शीघ्र सुनती हैं।
सभी मन्त्रों की भांति देवी के मन्त्र की पहले गुरु से या इष्ट देवी से दीक्षा लें,
फिर पुरश्चरण विधि से मन्त्र को सिद्ध करें। इसके जप करने से साधक के या
जिसके लिए अनुष्ठान किया जाए, उसकी सभी विघ्न-बाधाएं दूर हो जाती हैं,
कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।

निष्काम भाव से साधना करने पर साधक को स्वयं मां की कृपा से चाहिए।
अर्थ, काम, मोक्ष, ऋद्धि-सिद्धि, सुख-सम्पत्ति, सभी वैभव आदि प्राप्त होते हैं।
होली, दिवाली, कृष्ण पक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी से साधना का आरम्भ करना
साधक को किसी शुभ मुहूर्त्त, पर्वकाल, कालरात्रि, मोहरात्रि, महारात्रि ग्रहणकाल,
स्नान करके, पवित्र होकर, स्वच्छ आसन पर बैठकर साधना-पूजा करें।
रंग के पदार्थ पूजा में विशेष रूप से प्रयोग में लाए जाते हैं। पूजा में लाल रंग के पुष्प,
  लाल रंग की गन्ध, लाल चन्दन, लाल कुंकुम, लाल रंग की धूप, लाल बत्ती का
दीपक, रुद्राक्ष की माला, लाल रंग का नैवेद्य फल, सेब, गुलाब जामुन आदि प्रयुक्त
होते हैं। आसन तथा पहनने के वस्त्र भी लाल होने चाहिए। दीपक शुद्ध घृत का प्रयोग.

किसी लाल रंग की काठ की चौकी पर देवी के चित्र की स्थापना करें,
षोडशोपचार, पंचोपचार या मानसोपचार से देवी की पूजा करें।
ध्यान, कवच-पाठ के बाद मन्त्र का जप करें। जप से पहले माला की पूजा की
जाती है। पूजा व जप करें और मां का हृदय में ध्यान करते हुए उपासना करें।
इस मन्त्र का पुरश्चरण तीन लाख जप संख्या का है। नियमानुसार दशांश
हवन, तर्पण, मार्जन, ब्राह्मण भोजन आदि की क्रियाएं करें। इस प्रकार पुरश्चरण
किया जाए तो मंत्रसिद्धि शीघ्र हो जाती है।
किसी भी कार्य के लिए, तत्पश्चात् स्वयं के लिए अथवा दूसरे के लिए
अनुष्ठान किया जा सकता है। अनुष्ठान में कार्य की गम्भीरता को देखते हुए ग्यारह
हजार अथवा इक्कीस हजार आदि जप की संख्या निश्चित की जाती है। 

ध्यान
बाल रवि द्युति मिन्दु किरीटां,
तुंग कुचां नयन त्रय युक्ताम् ।
स्मेर  मुखीं वरदांकुश पाशां
भीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ॥
माता भुवनेश्वरी देवी के शरीर के अंगों की आभा प्रभात काल के सूर्य के
समान लालिमा लिए हुए है। उनके मस्तक पर मुकट स्वरूप चन्द्रमा शोभायमान
है। उभरे हुए स्तनों वाली मां भुवनेश्वरी के तीन नेत्र हैं। वह मन्द-मन्द मुसकरा
रही हैं। उनकी चारों भुजाओं में वरद मुद्रा (वरदान वाली मुद्रा) अंकुश, पाश व
अभय मुद्रा हैं। ऐसी भक्तों को अभय प्रदान करने वाली भुवनेश्वरी देवी का मैं
भजन करता हूं, ध्यान करता हूं तथा नमस्कार करता हूं। 

कवच
ह्रीं बीजं मे पातु भुवनेशी ललाटकम् ।
ऐं पातु दक्षनेत्रं मे ह्रीं पातु वाम लोचनम् ॥
श्रीं पातु दक्ष कर्णे मे त्रिवर्णात्मा महेश्वरी ।
वाम कर्णे सदा पातु ऐं घ्राणं पातु मे सदा ॥
ह्रीं पातु वदनं देवी ऐं पातु रसनां मम ।
वाक्पुटा च त्रिवर्णात्मा कण्ठे पातु परात्मिका ॥

श्रीं स्कन्धौ पातु नियतं ह्रीं भुजौ पातु सर्वदा।
क्लीं करौ त्रिपुरा पातु त्रिपुरैश्वर्यदायिनी ॥
ॐ पातु हृदयं ह्रीं मे मध्य देशं सदाऽवतु ।
क्रीं पातु नाभिदेशं सा त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी ॥
सर्व बीजप्रदा पृष्ठं पातु सर्व वशंकरी ।
ह्रीं पातु गुहादेशं मे नमो भगवति कटिम् ॥
माहेश्वरी सदा पातु शंखिनि जानुयुग्मकम् ।
अन्नपूर्णा सदा पातु स्वाहा पातु पदद्वयम् ॥
सप्तदशाक्षरी पायादन्नपूर्णात्मिका परा।
 तारं माया रमा कामः षोडशाणी ततः परम् ॥
शिरस्था सर्वदा पातु विंशत्यर्णात्मिका परा।
तारंदुर्गे युगं रक्षिणि स्वाहेति दशाक्षरी ॥
जय दुर्गा घनश्यामा पातु मां पूर्वतो मुदा ।
मायाबीजादिका चेषा दशार्णा च लतः परा ॥
उत्तप्तकांचना भाषा जय दुर्गाननेऽवतु ।
तारं ह्रीं दुं दुर्गायं नमोऽष्टार्णात्मिका परा ॥
शंख चक्रधनुर्बाणधरा मां दक्षिणेऽवतु ।
महिषमर्दिनि स्वाहा वसुवर्णात्मिका परा ॥
नैर्ऋत्यां सर्वदा पातु महिषासुर नाशिनि ।
माया पद्मावति स्वाहा सप्तार्णा परिकीर्तिता ॥
पद्मावति पद्मसंस्था पश्चिमे मां सदाऽवतु ।
पाशांकुशपुटा माये हि परमेश्वरि स्वाहा ॥
त्रयोदशार्णा ताराद्या अश्वरूढाननेऽवतु ।
सरस्वति पञ्चशरे नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ॥
स्वाहा रण्येक्षरि विद्या मामुत्तरे सदाऽवतु ।
तारं माया तु कवचं सं रक्षेत सदा वधुः ॥
हूं शें फट् महाविद्या द्वादशार्णा खिलप्रदा ।
त्वरिताष्टाहिभिः पायाच्छिवकोणे सदा च माम् ॥
ऐं क्लीं सौः सततो बाला मूर्द्धदेशतोऽवतु ।
बिंद्वन्ता भैरवी बाला भूमौ च मां सदाऽवतु ॥