तन्त्र क्या करता है?

• तन्त्र में दो प्रकार के मार्ग हैं- दक्षिण मार्ग एवं वाम मार्ग।
• दोनों प्रकार की तान्त्रिक सिद्धियाँ की जाती हैं। शीघ्र सिद्धि वाम मार्ग के रास्ते से मिलती है। यह मार्ग पूर्णतः श्मसानीक तथा पैशाचिक मार्ग है। औघड़ इत्यादि इसी मार्ग के साधक होते हैं। वस्तुतः वाम मार्ग अच्छा बुरा में भेद नहीं करता बल्कि सबको एक प्रकार का महत्त्व देता है। ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार,जीवन मुक्ति, अन्तःकरण का परिमार्जन तन्त्र की पहुँच के बाहर है। वाम मार्ग या दक्षिण मार्ग से भौतिक प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है।
बन्दूक, राईफल, तलवार, रिवाल्वर, चाकू इत्यादि घातक अस्त्रों एवं हथियारों से किसी की जान आसानी से ली जा सकती है। इसमें भी निर्बल मनुष्य को मारना और आसान होता है। ठीक इसी प्रकार तन्त्र में अभिचार कर्म द्वारा किसी दूसरे का प्राण आसानी से लिया जा सकता है। जैसे छोटी चिड़ियों को मारने के लिये गुलेल काफी है उसी प्रकार निर्बल बीमार, बालक, वृद्ध या डरपोक मनुष्य पर मामूली तान्त्रिक शक्ति का प्रयोग कर उनका प्राण लिया जा सकता है। शरीर में मादक पदार्थों व नशीली चीजों की अधिक मात्रा होने के कारण मनुष्य की मस्तिष्क क्रिया शक्ति विकृत हो जाती है। वह सोचने समझने में असमर्थ रहता है तथा वह पागल हो जाता है। ठीक उसी प्रकार तान्त्रिक प्रयोगों द्वारा एक सूक्ष्म नशीला प्रभाव किसी के मस्तिष्क में प्रवेश कराकर उसकी बुद्धि नष्ट की
जा सकती है। कुछ इस प्रकार की विषपूर्ण दवायें हैं जो अगर भूल से कोई खा ले तो शरीर में कई भयंकर उपद्रव या बीमारियाँ उठ जाती हैं। कै, दस्त, हिचकी, मूर्छा, अनिद्रा, दर्द आदि अनेक रोग अकस्मात् हो जाया करते हैं। तान्त्रिक प्रयोगों के द्वारा भी मनुष्य के शरीर में विषैला पदार्थ प्रवेश कराया जाता है।जिस प्रकार रेडियोधर्मी किरणों के द्वारा राडार द्वारा, एक स्थान पर बैठे-बैठे ही निर्धारित दूरस्थ स्थान पर अस्त्र चलता है और वहाँ जाकर लक्ष्य वस्तु को क्षति करता है उसी प्रकार कृत्या,घात, मारण आदि तान्त्रिक प्रयोग द्वारा दूरस्थ व्यक्ति पर असर होता है। और वह प्रयोग मनुष्य को आघात करता है।


जिस प्रकार युद्ध काल में बमबारी द्वारा सम्बन्धित स्थान के सुख सुविधा के साधन यथा-मकान, कल कारखाना, खेत, रेल, मोटर, सड़क, पुल आदि नष्ट हो जाते हैं। फलतः क्षण भर में अमीर व्यक्ति भी असहाय एवं दरिद्र हो जाता है। इसी प्रकार तान्त्रिक प्रयोग द्वारा किसी के भी सौभाग्य वैभव और सम्पन्नता पर चोट कर शीघ्र नष्ट किया जा सकता है। सभी स्तब्ध रहते हैं कि एकाएक ऐसा कैसे हो गया।


जासूसी ठग ऐसा छद्म रूप धारण करते हैं कि अपने साध्य व्यक्ति को आकर्षण, प्रलोभन कुचक्र में फँसाकर बुद्धिमान व्यक्ति  को भी बेवकूफ तथा मूर्ख बनाकर अपना काम कर लेते हैं।मेस्मेरिजम एवं हिप्नोटिज्म द्वारा किसी के मस्तिष्क को सम्मोहित कर उसे वश में कर लिया जाता है तथा उससे मनचाहा कार्य कराया जाता है। तन्त्र में अनेकों गुनी ओझा तान्त्रिक हैं जो गुप्त तरीके से बौद्धिक वशीकरण का जाल फेंक कर दूसरों को अपने वश में कर लिया करते हैं। उससे वह गुनी डायन से जो चाहते हैं वही काम कराता है। उसकी अपनी इच्छा मनोवृत्ति काम नहीं करती है।व्याभिचारी पुरुष किसी सरल सीधी स्त्रियों पर किसी प्रकार का जादू चलाकर उन्हें पथभ्रष्ट कर देता है। यहाँ तक की सम्मानित स्त्रियाँ भी इसकी शिकार हो जाती हैं। उसी प्रकार पथभ्रष्ट व्याभिचारिणी स्त्रियाँ भी ऐसी हैं जो दूसरे पुरुष को अपने वश में करके उन्हें जैसा चाहती है, नचाती हैं। कई वेश्यायें इस प्रकार का प्रयोग कर किसी धनी व्यक्ति को फँसाकर उसका धन ले लेती हैं और ठोकर मारकर भिखारी बना देती हैं।तन्त्र द्वारा स्त्री पुरुष आपस में एक दूसरे की शक्ति को चूसते हैं। समागम द्वारा भी साथी की प्राणशक्ति को चूस लिया जाता है। तान्त्रिक प्रधानता के मध्यकालीन युग में बड़े आदमी बहु विवाह किया करते थे तथा सैकड़ों रानियाँ रनिवास में रहती थीं। यही प्रक्रिया स्त्रियाँ भी अपनाकर अनेक पुरुषों को अपने प्रेम में फाँस लिया करती हैं। जादूगरनी स्त्रियाँ अच्छे सुन्दर युवकों को मेढ़ा, बकरा, तोता आदि बना लेती थीं। कौड़ी, कामसाक्षा आदि की इसी प्रकार की कथायें हैं। वाम मार्ग के पंचमकारों में मैथुन का विशेष महत्त्व है। इसके द्वारा अन्नमय कोष और प्राणमय कोष के सम्मिलित मैथुन में स्त्री पुरुष शरीर में आपसी महत्त्वपूर्ण आदान प्रदान होते हैं। मैथुन एक साधारण रतिक्रिया मालूम होता है पर इसका सूक्ष्म महत्त्व अधिक है। इसी कारण भारतीय विद्वानों ने इसके लिये विशेष निर्देश दिये हैं। तन्त्र के द्वारा ही मार्गदर्शित लिंग, योनि की आमतौर से पूजा की जाती है।

तन्त्र द्वारा सदुपयोग एवं दुरुपयोग दोनों किया जा सकता है। जैसे गुड़ खाने के काम में लाया जाता है साथ ही शराब बनाने के भी काम में प्रयोग किया जाता है। तान्त्रिक भी सतोगुणी, सरल धर्मपूर्ण एवं कल्याण का कार्य करते हैं। वही तान्त्रिक दुःसाहसपूर्ण अनैतिक एवं सांसारिक चमत्कारों को सिद्ध करने वाला भी काम करते हैं। तान्त्रिक ‘ह्रीं’ शक्ति से ब्रह्मा की शक्ति को प्राप्त करता है तथा ‘क्लीं’ शक्ति से अपनी शक्ति प्राप्त करता है। अपने या दूसरे के प्राणों को मंथन करके तन्त्र की तड़ित शक्ति प्राप्त करता है।

प्राणान्त के समय में भी प्राणी का प्राण मैथुन की भाँति उत्तेजित, उद्विग्न एवं व्याकुल होता है। वैसी स्थिति में भी तान्त्रिक प्राणशक्ति का बहुत-सा भाग खींचकर अपना शक्ति भण्डार भरते हैं। नीति-अनीति का ध्यान किये बगैर तान्त्रिक पशु-पक्षियों का बलिदान इसी प्रयोजन के लिये किया करते हैं।

बैतालिक, ब्रह्मराक्षस आदि कई सम्प्रदाय तान्त्रिकों के होते हैं। अनुचित हानि-लाभ पहुँचाते हैं। अघोरी, कापालिक, रक्तबीज, स्त्रियों में डाकिनी, शाकिनी कपालकुण्डला, सूर्यसूत्रा सम्प्रदाय भी होता है।बन्दूक छोड़ने वाला अगर मजबूत तथा पूर्ण जानकार न हो तो कभी-कभी बन्दूक ऐसा जोर का झटका देती है कि चलाने वाले औंधे मुँह गिर पड़ते हैं तथा उनकी हड्डी तक टूट जाती है।इसी प्रकार तन्त्र द्वारा भी बन्दूक जैसी तेजी के साथ विस्फोट होताहै और उसका झटका सहने योग्य ताकत साधक के पास नहीं रहने पर उसे भयंकर खतरों का सामना करना पड़ता है।द्रुतगति से आती हुई गाड़ी को रोकना और उस पर प्रतिरोध से शक्ति प्रदान करना बड़ा खतरनाक खेल होता है। प्रतिरोध जितना बड़ा कड़ा होगा झटका भी उतना ही जबरदस्त होगा। वाममार्गी तान्त्रिक इसी प्रतिरोध को रोकने वाली तथा सबसे शक्ति प्राप्त करने वाली क्रिया किया करते हैं। तन्त्र में साधक खण्डहरों, श्मशानों में अर्धरात्रि के समय जब उनकी साधना का मध्यकाल आता है उस समय कितने रोमांचकारी भय उपस्थित होते हैं। गगनचुम्बी राक्षस, विशालकाय सर्प, लाल नेत्रों वाले शूकर और महिष, छुरी से दाँत वाले सिंह साधक के आसपास जिस भयंकर तरीके से गर्जन-तर्जन करते हुए कुहराम मचाते हैं और साधक पर आक्रमण करते हैं उससे न तो डरना और न विचलित होना, एक साधारण काम नहीं है। साहस के अभाव में साधक अगर भयभीत हो जाए तो उसके प्राण पर भी संकट आ जाते हैं। जैसे समुद्र में मछलियाँ अनेक जाति की होती हैं उसी प्रकार यह साधक भी अनेक स्वभावों, गुणों, शक्तियों से सम्पन्न होते हैं। इन्हें पितर, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस, देव, दानव, ब्रह्म
राक्षस, बैताल, कूष्माण्ड, भैरव रक्तबीज आदि कहते हैं। उनमें से किसी को सिद्ध करके अपने प्रयोजनों को साधा जाता है।


भूतोन्माद, मानसिक भ्रम, आवेश, अज्ञात आत्माओं द्वारा कष्ट दिया जाना, दुःस्वप्न तान्त्रिक के अभिचार, आक्रमण आदि किसी सूक्ष्म प्रक्रिया द्वारा जो व्यक्ति कष्ट पाता है उसे तान्त्रिक प्रयोग को उलटा कर उस अत्याचार का मजा चखाया जा सकता है। तन्त्र के वाममार्ग द्वारा उस विषैले सर्प से विष को खींचकर उसे हतवीर्य जैसा बनाया जा सकता है।तन्त्र के साधारण चमत्कारिक प्रलोभन अनेक हैं। दूसरों पर आक्रमण करना तो उनके बायें हाथ का खेल है। किसी को बीमार, पागल, बुद्धिभ्रम, उच्चाटन कर प्राणघातक संकट में डालना उनके लिये आसान है। सूक्ष्म जगत में भ्रमणशील किसी चेतनाग्रन्थी को प्राणवान बनाकर उसे प्रेत, पिशाच, बैताल, कर्णपिशाचिनी, छायापुरुष आदि के रूप में सेवक की तरह काम लेना, दूर देशों में अजनबी चीजें मँगा देना, गुप्त रखी हुई चीजों या अज्ञात व्यक्ति का नाम पता बता देना, तान्त्रिक के लिये सम्भव है। आगे चलकर वेश बदल लेना या किसी वस्तु का रूप बदल देना भी उनके लिये सम्भव है। उनके लिये भक्ति का स्रोत काली हैं। जो परिवर्तनशील हैं। यह साधना थोड़े दिन बन्द कर देने पर शक्ति का घट जाना या समाप्त हो जाना निश्चित है। तन्त्र द्वारा कुछ छोटे मोटे लाभ भी हो सकते हैं। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक आसानी से तान्त्रिक बनती देखी गई हैं। क्योंकि तान्त्रिक को कोमल एवं साहसी परमाणुओं वाला होना चाहिये। आमतौर पर तान्त्रिक घाटे में रहता है। उससे अपकार ही अधिक होता है।


एक व्यक्ति भूत की सिद्धि किया करता था। वह उससे काम लिया करता था। जो काम वह कहता था तुरन्त कर दिया करता था। कुछ दिनों के बाद उस तान्त्रिक के पास भूत से काम लेने का काम ही नहीं रहा। इस पर उस भूत ने तान्त्रिक से कहा कि मैं यों ही बैठा नहीं रहूँगा। हमसे हमेशा काम लो नहीं मैं तुम्हें ही मार डालूँगा। तान्त्रिक बड़ा फेर में पड़ा। वह अपने गुरु के पास गया और अपनी समस्या उसने बतलायी। उस पर गुरु ने कहा कि अपने घर के आँगन में एक बड़ा बाँस गाड़ दो भूत से कहो कि वह उस पर चढ़े और फिर उतरे जब तक वह ऐसा न करने के लिये नहीं कहे तो तब तक यह काम करतेरहो। उस तान्त्रिक ने वही किया। अब भूत सदा उस बाँस पर चढ़ता तथा उतरता रहता था। यह कार्य करते हुए वह दुखित हो गया। जब उसने उस तान्त्रिक को अनिष्ट न करने का वचन दिया तब उस भूत को छोड़ा गया। अतः तान्त्रिक को भी विवेक से काम करना होता है।