कालसर्पयोग

ग्रहों का एकीकरण जब जन्मकुन्डली के किसी स्थान में होता है तो ऐसी स्थिति

को ‘योग’ कहा जाता है। ज्योतिष शास्त्र में योगों का बड़ा महत्त्व माना गया है।

जन्मकुण्डली में सभी ग्रह राहू और केतू की एक ही बाजू में स्थित हों तो

ऐसी ग्रहस्थिति को ‘कालसर्पयोग’ कहते हैं। कालसर्पयोग एक भयानक योग है।

सांसारिक ज्योतिष शास्त्र में इस योग के विपरीत परिणाम देखने में आते हैं।

भारतीय प्राचीन ज्योतिष शास्त्र साहित्य इस योग के विषय में चुप्पी साधे

बैठा है। आधुनिक ज्योतिष विद्वानों ने भी ‘कालसर्पयोग’ पर प्रकाश डालने का

कष्ट नहीं उठाया है। जातक के जीवन पर इस योग का क्या परिणाम नहीं होता!

गत दस वर्षों में लगभग २००० कुण्डलियों का जिज्ञासापूर्ण गहन अध्ययन

एवं विवेचन करने के पश्चात् मेरा यह दृढ़ मत है कि ज्योतिष शास्त्र में ‘कालसर्पयोग’ हे।

ज्योतिषविदों से मेरा विनम्र निवेदन है कि सूर्य के दोनों ओर ग्रह रहने पर

‘वेली’, ‘वसी’, ‘उभय’, ‘उभयचारी योग’ बनते हैं। चन्द्र की दोनों ओर ग्रह होने

पर ‘अनफा’, ‘सुनफा’, ‘दुर्धरा’ और ‘केनद्रुण योग’ बनते हैं। शनि के साथ चन्द्र

हो तो ‘विषयोग’ बनता है। चन्द्र के साथ राहू हो तो ‘ग्रहणयोग’ बनता है। राहू,

गुरु के साथ हो तो ‘चंडालयोग’ बनता है। इस तरह राहू-केतू के इर्द-गिर्द सभी

ग्रह हों तो जो योग बनता है, उसे ‘कालसर्पयोग’ कहने में आपको आपत्ति नहीं

होनी चाहिए। राहू-केतू द्वारा सारे ग्रह भटकाये जाने से जातक पर होने वाले इसके

बुरे प्रभावों को आप कैसे नकार सकते हैं?

महर्षि पराशर एवं वराहमिहिर जैसे प्राचीन ज्योतिषाचार्यों ने ‘कालसर्पयोग’.

को माना है तथा अपने ग्रन्थों में इसका जिक्र किया है। महर्षि भृगु, कल्याण बर्माबादरायण, गर्ग, भणित्थ आदि ने भी ‘कालसर्पयोग’ सिद्ध किया है। काशी

(वाराणसी) से प्रकाशित ‘व्यवहारिक ज्योतिष तत्त्वम्’ एवं ‘जन्मांग फल विचार’

इन ग्रन्थों में ‘कालसर्पयोग’ को निवारण के उपायों सहित समझाया गया है।वराहमिहिर ने अपनी संहित। के ‘जातक नम संयोग’ में सर्पयोग का उल्लेख

किया है। कल्याण वर्मा ने अपनी बहुमूल्य रचना ‘सरावती’ में सर्पयोग की विषद्

व्याख्या की है। ‘शान्तिरत्नम्’ ने ‘कालसर्पयोग’ को केवल मान्य ही नहीं किया,

अपितु कालसर्प शांति को जातक के लिए जनन शांति बताया है। कई नाड़ी ग्रन्थों

कालसर्प योगमार्ग दर्शन ने भी ‘कालसर्प’ का समर्थन किया है। ‘जैन ज्योतिष’ में भी ‘कालसर्प’ की व्याख्या

है। स्वर्गीय माणिकचन्द जी जैन ने अपनी राहू-केतू सम्बन्धी किताब में भी

‘कालसर्पयोग’ माना है। उनके मतानुसार सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय जो स्थिति

पैदा होती है, वही स्थिति ‘कालसर्पयोग’ के कारण जातक के जन्मांग में होती है।

‘कालसर्पयोग’ सर्वसाधारण रूप में किसी ने भी अच्छा नहीं माना है। ‘कालसर्पयोग’

वाले जातक दूसरों के लिए जीते हैं। अपने लिए कोई सुख-उपभोग उन्हें प्राप्त नहीं

होता। ‘स्वान्ताय सुखाय’ जीने के लिए ही अपना जीवन है, ऐसा मानने वालों को

‘कालसर्पयोग’ दुःखदायी नहीं सिद्ध होगा। परन्तु मुश्किल से मिले इस जन्म को

कौन दूसरों के लिए जीने में अपने जीवन की सार्थकता मानेगा? ऐसा होता तो

आज करोड़ों रुपयों के घोटाले ही नहीं होते।

राहू-केतू को लेकर जो पौराणिक कथा है, उसका अध्ययन किया जाना चाहिए।

पाश्चात्य् ज्योतिविदों ने भी राहू-केतू को ‘कार्मिक’ माना है एवं व्यक्तिगत जीवन

पर होने वाले उनके परिणामों को मान्य किया है। ‘कार्मिक ज्योतिष्य’ में ‘राहू’

पृथ्वी पर ‘काल’ है और ‘केतू’ ‘सर्प’ । इनके द्वारा हमें पिछले कर्मों को भोगना पड़ता

है। ‘राहू’ सर्प का प्रतिनिधि है, यह बात ज्योतिषशास्त्र-साहित्य में राहू के प्रभाव

में कही गयी है। राहू के प्रभाव में रहने वाले जातक सर्प से डरते है। उन्हें सपनों

में सर्प दिखायी देते है। सर्प कौन है ? ज्योतिषशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र में सर्प

को केतू का प्रतीत माना है। इससे हिन्दू ज्योतिषशास्त्र में वर्णित ‘कालसर्पयोग’

को भली-भांति समझा जा सकता है।

‘कामरत्न’ के अध्याय १४ के श्लोक ४१ में ‘राहू’ को ‘काल’ कहा गया है

श्लोक ५० में आगे कहा गया है-‘काल’ यानि ‘मृत्यु’ ! ‘मानसागरी’ के ४थें अध्याय

का १०वां श्लोक कहता है, ‘शनि’, ‘सूर्य’ और ‘राहू’ जन्मांग में लग्न में, सप्तम

स्थान में होने पर ‘सर्पदंश’ होता हैं।

हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में ‘राहू’ के अधिदेवता ‘काल’ और प्रत्याधि देवता

‘सर्प’ माना है। किसी भी ग्रह की पूजा के लिए उस ग्रह के अधिदेवता एवं प्रत्याधि

देवता का पूजन अनिवार्य है। इसलिए ‘राहूशांति’ को ‘कालसर्पशांति’ कहा गया

है, जो कि सर्वथा योग्य है। मंत्रजाप, दशांश हवन, ब्रह्मभोज, दान इत्यादि सब कुछ

ग्रहशांति की तरह ‘कालसर्पशांति’ में अनिवार्य हैं। ‘कालसर्पशान्ति’ जन्मशान्ति है,

इसे नकारा नहीं जा सकता।

कालसर्पभोग सामान्य जनसमाज में बहुचर्चित विषय है। बहुतांश समाज इसेमानता भी है। परन्तु इस विषय में शास्त्रोक्त जानकारी प्राप्त करने वाले और सही

मार्गदर्शन करने वाले बहुत ही अल्प संख्या में भी कालसर्पयोग के निवारण के उपाय

मिलते हैं।

वास्तव में राहू-केतू छायाग्रह हैं। उनकी अपनी कोई दृष्टि नहीं है। राहू का

जन्मनक्षत्र भरणी और केतू का जन्मनक्षत्र आश्लेषा है। राहू के जन्मनक्षत्र भरणी

के देवता ‘काल’ हैं और केतू के जन्मनक्षत्र आश्लेषा के देवता सर्प हैं। राहू-केतू

के जो फलित मिलते हैं, उनको राहू-केतू के नक्षत्र देवताओं के नामों से जोड़कर

‘कालसर्पयोग’ कहा जाये, तो इसमें आपत्तिजनक या अशास्त्रीय क्या है?

राहू के गुण-अवगुण शनि जैसे हैं। वह जिस स्थान में जिस ग्रह की युति में

होगा, उसका व शनि का परिणाम देता है। शनि आध्यात्मिक चिन्तन, दीर्घ विचार

एवं गणित के साथ आगे बढ़ने का गुण अपने पास रखता है। यही बात राहू की

है। राहू की युति किस ग्रह के साथ है, वह किस स्थान का अधिपति है, यह भी

देखना होगा। राहू, मिथुन राशि में उत्व, धनु राशि में नीच और कन्या राशि में

स्वग्रही कहलाता है। राहू के मित्र शनि, बुध और शुक्र हैं। गुरु उसका समग्रह है।

रवि, चन्द्र, मंगल उसके शत्रु हैं। इसके साथ युति करने वाले ग्रहों के स्थान पर

उसका अमल होता है। केतू के भी परिणाम ऐसे ही हैं। केतू में मंगल के गुणधर्म

हैं। मंगल-शुक्र केतू के मित्र हैं। चन्द्र, बुध, गुरु उसके सम ग्रह हैं, एवं रवि, शनि,

राहू उसके शत्रु हैं।

कालसर्पयोग जिसके जन्मांग में है, ऐसे व्यक्ति को अपने जीवन में काफी

संघर्ष करना पड़ता है। इच्छित और प्राप्त होने वाली प्रगति में रुकावटें आती हैं।

बहुत ही विलम्ब से यश प्राप्त होता है मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक विविध.

रूप से व्यक्ति परेशान होता है।

‘कालसर्पयोग’ की कुण्डली धारण करने वाले जातक का ‘भाग्यप्रवाह’ राहू-केतू

अवरुद्ध करते हैं। इस कारण जातक की उन्नति नहीं होती। उसे कामकाज नहीं

मिलता। कामकाज मिल भी जाये तो उसमें अनंत अड़चनें उपस्थित होती हैं ।

परिणामस्वरूप उसे अपनी जीवनचर्या चलाना मुश्किल हो जाता है। उसका विवाह

नहीं होता। विवाह हो भी जाये तो संतति-सुख में बाधा आती है। वैवाहिक जीवन

में कटुता आकर अलगाव रहता है कर्ज का बोझ उसके कंधों पर होता है और उसे

अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं।

जाने-अनजाने में किये गये या हुए कर्मों के फलस्वरूप ‘दुर्भाग्य’ का जन्म

होता है। ‘दुर्भाग्य’ चार प्रकार के होते हैं-१. संतान अवरोध के रूप में प्रकट होता है।

२. कुलक्षणी एवं कलहप्रिय पति या पत्नी का मिलना।

३. कठोर परिश्रम का फल न मिलना ।

४. शारीरिक हीनता एवं मानसिक दुर्बलता के कारण निराशा की भावना जागृत

होना है। वह अपने जीवित शरीर का बोझ ढोते हुए शीघ्रातिशीघ्र मृत्यु को प्राप्त

करना चाहता है।

‘दुर्भाग्य’ के उपरोक्त चारों लक्षण कालसर्पयुक्त जन्मांग में स्पष्ट रूप से

प्रतिबिम्बित होते हैं ।

कालसर्पयोग पीड़ित जातक ‘दुर्भाग्य’ से छुटकारा पाने के लिए भौतिक उपायों

का सहारा लेता है। वह डॉक्टर, हकीम और वैद्य के पास पहुंचता है। धनप्राप्ति के

अनेक उपाय सोचता है। उसके लिए आवश्यक नियोजन भी करता है। बार-बार

प्रामाणिक और युक्तिसंगत प्रयास करने पर भी सफलता न मिलने पर, अन्तिम उपाय

के लिए उसका ध्यान ‘ज्योतिषशास्त्र’ की ओर आकर्षित होता है। अपनी जन्मपत्री

में वह दोष ढूंढता है। जन्मपत्री में कौन-कौन से कुयोग हैं? पूर्व जन्मकृत सर्वशाप,

पितृशाप, भातृशाप, ब्राह्मणशाप इत्यादि शापों में से कोई शाप तो उसकी जन्म कुण्डली

में नहीं है? इसके लिए ज्योतिषी से पूछताछ करता है। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान,

शुभकर्म भी फलदायी क्यों नहीं हो रहे हैं? इसका पता लगाने की कोशिश करता

है। तब उसे स्पष्ट रूप से उसकी जन्म कुण्डली में दिखायी देता है-‘कालसर्प योग’ ।

जब व्यक्ति की चिकित्सा औषधीय उपायों से नहीं हो पाती, तो कर्मजरोग,

कर्मजव्याधी को मानना ही पड़ता है। ‘योग रत्नाकर’ का यह एक कथन इस विषय

में बहुत ही सार्थक है। ‘योग रत्नाकर’ कहता है-

॥ न शमं याति यो व्याधि श्रेय कर्म जो बुधः ॥

॥ पुण्यश्च भेषजे शान्तस्ते श्रेया कर्म दोषजाः ॥

कोई माने या न माने, ‘कालसर्पयोग’ अस्तित्व में है। किसी के मानने या न

मानने से शास्त्रसिद्धान्त न कभी बदलते हैं और न कभी बदले हैं। ‘कालसर्पयोग’

स्वयं प्रमाणित है। इसे और अधिक प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। शास्त्र,

शास्त्र ही है, फिर उसे कोई माने या न माने ।

ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन, संशोधन करने वाले आचार्यों ने सर्प का मुंह राहू

और पूंछ केतू, इन दोनों के बीच में सभी ग्रह रहने पर निर्माण होने वाली ग्रहस्थिति

कालसर्प योगमार्ग दर्शनको ‘कालसर्पयोग’ कहा है। यह ‘कालसर्पयोग’ मूल ‘सर्पयोग’ का ही परिष्कृत स्वरूप

है। जातक के भाग्य का निर्णय करने में राहू-केतू का बड़ा योगदान है। तभी तो

विशोंतरी महादशा में १८ वर्ष एवं अष्टोत्तरी महादशा में १२ वर्ष हमारे आचार्यों

राहू दशा के लिए निर्धारित किये हैं।

दो तमोगुणी एवं पापी ग्रहों के बीच में अटके हुए सभी ग्रहों की स्थिति अशुभ

ही रहती है। ‘कालसर्पयोग’ के परिणामस्वरूप जातक का अल्पायु होना, उसका

जीवन-संघर्ष के ओत-प्रोत रहना, एवं अर्थाभाव रहना, देहिक सुखों का अभाव रहना

ऐसे फल प्राप्त होते हैं। नक्षत्र पद्धति के अनुसार, राहू या केतू के साथ जो ग्रह

हो, वह एक ही नक्षत्र में हो, तो परिणामों की तीव्रता कम होती है। राहू केतू ये

छायाग्रह होते हुए भी नवग्रहों में उनको स्थान दिया गया है। दक्षिण में तो राहू

काल सभी शुभ कार्यों के लिए निषिद्ध माना है।  यमुना नदी की बाढ़ से छत्र बनकर संरक्षण देने वाले शेषनाग का इतिहास भी

भुलाया नहीं जा सकता। उसी तरह कालिया मर्दन के बाद भी, ग्वालों के कन्हैया

कृष्ण बने, यह बात भला कैसे भुलायी जा सकती है!

संपूर्ण विश्व का संचालन करने वाले स्वयं भगवान विष्णु शेषनाग पर ही नींद

लेते हैं एवं स्वयं शेषनाग छत्र बनकर उन्हें छांव प्रदान करते हैं। यह भुजंगशयन

की कहानी आज भी घर-घर में कही-सुनी जाती है।

भगवान सांबसदाशिव देवों के महादेव माने जाते हैं। ज्ञान एवं मोक्ष का परवाना

(लायसेंस) देने का काम उन्होंने अपने स्वयं के सुपुर्द रखा है। संपूर्ण तन्त्रशास्त्र

भी उन्हीं के अधीन है। इस भोलानाथ शंकर का शरीर सर्पों से ही वेष्ठित है। नाग

के सिवा शिवलिंग की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

जैन सम्प्रदाय के सर्वाधिक लोकप्रिय, जिनकी चेतना, प्रेरणा आज भी विद्यमान

है, ऐसे शीघ्र प्रसन्नदायी २३वें तीर्थंकर भगवान श्री पार्श्वनाथ जी नागकुमार धरेन्द्र

के साथ ही पहचाने जाते हैं। फन वाले नाग का मस्तक छत्र पार्श्वनाथ जी की

पहचान है। उन्हीं के साथ धरणेन्द्र भी पूजे जाते हैं ।

नाग एवं सर्प का इतना अधिक बोलबाला क्यों है? हमारे हिन्दू धर्मशास्त्र

में नाग जागृत कुण्डलिनी शक्ति है। सुसुप्त कुंडलिनी का प्रतीक है।

दूसरे मायने में ‘नाग’ ‘कालस्वरूप’ है। नाग के मस्तक का सम्बन्ध राहू के

साथ है, तो नाग की पूछ का सम्बन्ध केतू के साथ है। राहू एवं केतू नाग के सूक्ष्म

स्वरूप हैं और सूक्ष्म जगत से उनका समीप्य है ।

जब-जब सभी ग्रह राहू-केतू के जाल में अटक जाते हैं, तब ‘कालसर्पयोग

का निर्माण होता है। काल यानि राहू एवं सर्प यानि केतू । राहू-केतू से बननेवाला

योग है-कालसर्पयोग ।

किसी भी जन्मांग में जब राहू-केतू के मध्य सभी ग्रह आते हैं, तब यह योग

बनता है। राहू या केतू के साथ एकाध ग्रह आ जाने से योगभंग नहीं होता। मभी

ग्रह राहू-केतू की एक ही बाजू में होने पर यह योग होता है।

सभी ग्रह राहू-केतू की बाजू में हों और एकाध ग्रह अलग हो, तो कालसर्पयोग

नहीं बनता। हां, राहू के अंशों से यह अलग पड़ा ग्रह अधिक अंशों में होना लाजमी

है। कालसर्पयोग का प्रभाव विश्व पर एवं व्यक्तिगत जीवन पर भी होता है । इस

योग का वास्तववादी मूल्यांकन होना अनिवार्य है।

जिनके जन्मांग में कालसर्पयोग है, ऐसे व्यक्ति ‘नियति’ या ‘प्रारब्ध’ के हाथ

कालसर्प योगमार्ग दर्शनमें खिलौना ही हैं। पुरुषार्थ से भी बढ़कर प्रारब्ध ही इनके जीवन में स्मरणीय प्रसंग

• लाता है। आप पुरुषार्थ करें, पर उसकी फलश्रुती राहू-केतू के द्वारा ही होगी। आपके

पूर्व संचित कर्मों के भागों की लगाम राहू-केतू के हाथों में है। राहू-केतू की

महादशा-अंतर्दशा एवं गोचर भ्रमण उस दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है

इस योग की एक खासियत है कि कालसर्पयोगियों का जन्म निश्चित रूप

में कर्मभोग के लिए ही है। किसी विशेष उद्देश्यपूर्ति के लिए अवतरित आत्मा की

संतान भी कालसर्पयोगी ही होगी। सूक्ष्म दिव्य संचालन राहू-केतू करते हैं। अब्राहम

लिंकन एवं पंडित जवाहर लाल जी नेहरू इस योग के बड़े उदाहरण हैं। इन दो

• महानुभावों का जन्म कालसर्पयोग में हुआ। अमेरिका एवं भारत के भाग्योदय के

लिए विधाता ने इनका उपयोग किया।

हर बार यह कर्म बड़ा ही होगा, ऐसा नहीं। मान लीजिए, किसी दम्पत्ति को

बाल-बच्चा नहीं हो रहा है ऐसे प्रसंग में किसी सिद्ध-ब्रह्मनिष्ठ संत के आशीर्वचन

से उन्हें बाल-बच्चा हो गया, तो वह बालक भी कालसर्पयोग का ही होगा।

कालसर्पयोग सामान्य व्यक्ति से कुछ अलग होते हैं। इसके अलावा इस योग

के संकारात्मक फल प्राप्त होते हैं, तो साथ ही नकारात्मक फल भी इस योग की

उत्पत्ति है। मूल आधार कुंडली में राहू-केतू कहां बैठे हैं एवं मूल जन्मकुंडली की

कितनी शक्ति है, इस पर परिणामों की तीव्रता अवलंबित है। चतुर्थ, अष्टम या

व्ययस्थान में राहू हो और कुंडली में कालसर्पयोग हो तो वह अधिक नकारात्मक

होगा। इस योग के अधिक-से-अधिक फल राहू की महादशा, अंतर्दशा या किसी

अन्य ग्रह की महादशा में राहू की अन्तर्दशा चल रही होगी, ऐसे समय में मिलेंगे

इसके अलावा राहू के अशुभ गोचर भ्रमण काल में भी हैरानी होती है।

‘कालसर्पयोग’ सकारात्मक हो तो जब मूल राहू पर से गोचरी के राहू का भ्रमण

होगा, तब या राहू की अट्ठारह सालों के दशाकाल में श्रेष्ठ फलप्राप्ति होती है

रिलायंस इंडस्ट्रीज के उद्योगपति श्री धीरुभाई अंबानी का जन्मांग इसका तगड़ा

उदाहरण है। राहू की महादशा के अट्ठारह वर्षों में ही धीरुभाई ‘शून्य’ से ब्रह्मांड’

प्राप्त कर सके। इन दो दशकों से राहू ने उनके खूब लाड़ किये ।

जन्मांग में चतुर्थस्थान में स्थित राहू ने हर्षद मेहता को मटियामेट कर दिया ।

राहू की महादशा में चल रहा शुक्र का समय उनके लिए सर्वोत्तम फलदायी था।

किन्तु शनि की अन्तर्दशा शुरू होते ही और चतुर्थस्थ राहू पर धनु के राहू का गोचर

भ्रमण शुरू होते ही उनकी धर-पकड़ हुई और उनके सभी रहस्यों का पर्दाफाश हो

गया। हर्षद मेहता ‘कालसर्पयोग’ है।संग

राहू का अधिकारी नागलोक पर है। मानव की मृत्यु के बाद उसकी वासना

परिवार में रही हो, तो मृत्यु के बाद वह आत्मा घर में नागयोनि में रहता है। अनुकूल

समय पाते ही वह नमत्तव के कारण उसी परिवार में जन्म लेता है। इस प्रकार का

पुनर्जन्म हो तो भी कालसर्पयोग जन्मांग में आयेगा ही।

पैसों से समृद्ध लोगों के जन्मांग में कालसर्पयोग के साथ ही रविन्द्र की युती

या अंशात्मक केन्द्र योग हो तो राहू की महादशा में या गोचर राहू के भ्रमण काल

में उनकी बरबादी हमने देखी है। ऐसी अवदशा होने के पीछे उनके बाप-दादाओं

ने बुरे तरीके से कमाया धन होगा या किसी के दुश्ववास के लिए होंगे। इन दो कारणों

में से ही एक कारण उनकी बरबादी के पीछे होना चाहिए। पिछड़े हुए एवं गरीब

जाति के लोगों पर राहू की पकड़ अधिक मजबूत रहती है। इसलिए कोई-न-कोई

शक बना ही रहता है। ऐसे प्रसंगों में नागदेवता का पूजन काफी हद तक समाधान

देता है।

नाग सम्पत्ति का प्रतीक है। दुनिया की सम्पूर्ण धन-सम्पदा पर नागों का

अधिपत्य है। जो धन-सम्पत्ति की लालसा से वीतराग होते हैं, उनकी कुंडलिनी जागृत

होकर वे पूर्णतया इस नागपाश से मुक्त हो जाते हैं। राहू-केतू के नागपाश से महापुरुषभी मुक्ति पा सकते हैं। वे काल को अपने वश में कर लेते हैं। भारत की कुण्डलीमें कालसर्पयोग है। इस ‘कालसर्पयोगी’ भारत को स्वतंत्रता के बाद पं० जवाहरलालजी नेहरू के रूप में पहला पंत प्रधान ‘कालसर्पयोगी’ ही प्राप्त हुआ। यह योगायोग भी बहुत कुछ कहता है।