छिन्नमस्ता

भगवती छिन्नमस्ता को भगवान शिव की शक्ति माना गया है। दस महाविद्याओं

में महाविद्या छिन्नमस्ता अत्यंत गोपनीय तथा भक्तों को बहुत प्रिय हैं। गुरु की

आज्ञा से साधना करने पर इन्हें सिद्ध किया जा सकता है। इनके विधान में बताया

गया है कि अर्द्धरात्रि में छिन्नमस्ता देवी की साधना से साधक को सरस्वती-सिद्धि

प्राप्त हो जाती है।

प्रायः सभी सामान्य शक्तियां किसी न किसी गुह्य तत्व की प्रतीक हैं, किन्तु

छिन्नमस्ता नितांत गुह्य तत्वों की द्योतक मानी जाती हैं।

जो देवी महामाया षोडशी बनकर विश्व की सृष्टि करती हैं, भुवनेश्वरी

बनकर पालन करती हैं, वही शिरोयज्ञ के अभाव में छिन्नमस्ता बनकर अन्त

समय में संहार करती हैं ।

देवी छिन्नमस्ता के बाएं हाथ में अपना ही मस्तक है। जिह्वा उनकी निकली

हुई है। भयंकर स्वरूप है। वह रुधिर की धारा का पान कर रही हैं। उनके केश

बिखरे एवं खुले हुए हैं। उनके दाएं हाथ में कर्त्री (कैंची) है। वह मुण्डमाला

धारण किए हुए हैं, उनका दिगम्बर (निर्वस्त्र) वेश है। नाग का यज्ञोपवीत पड़ा

हुआ है। डाकिनी वर्णिनी हैं। महाविकराल रूप से वह रणभूमि में रक्तबीज के

रक्त का पान कर रही है ताकि यह भयानक राक्षस फिर से उत्पन्न न हो सके।

प्रलय काल में भी यह महादेवी संहार कार्य में भी सदा सहायक रहती हैं।

शुंभ-निशुंभ नामक दैत्यों से देवी का युद्ध हुआ था, यह कथा दुर्गा सप्तशती

के उत्तम चरित में विस्तार से दी हुई है। शुंभ-निशुंभ दैत्यों का सेनापति रक्तबीज

नाम का राक्षस था-उसे यह वर प्राप्त था कि उसका एक बूंद रक्त जहां भी

गिरेगा, वहीं पर एक और नया रक्तबीज पैदा हो जाएगा। उस युद्ध में देवी ने अपने

शरीर से अनेक रूपों में अन्य नवदुर्गाओं को उत्पन्न किया था। उन्होंने रक्तबीज

के रुधिर (रक्त) को पृथ्वी पर पड़ते ही पान करने के लिए चामुण्डा देवी को

उत्पन्न किया। वह उसके समस्त रक्त को पी गईं ताकि और रक्तबीज उत्पन्न न

हो सकें। इन्हीं देवी को ‘छिन्नमस्ता महाविद्या’ कहते हैं ।

छिन्नमस्ता देवी की उपासना विशेष रूप से सन्तान प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति,

कवित्व शक्ति, लेखन शक्ति, वाचन-शक्ति, वाक्-सिद्धि, लेखनी-सिद्धि एवं

आर्ष-कवि बनने के लिए की जाती है।

इनके मंत्र का पुरश्चरण सवा लाख मन्त्र-जप का है । इक्कीस या इकतालीस

दिन में पूरा पुरश्चरण नियोजित किया जा सकता है। पुरश्चरण विधि पहले ही के

समान है, उसी भांति अपनी सुविधा व शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार नियम बनाकर

जप करना चाहिए।

देवी छिन्नमस्ता को खीर, लाल रंग के सूखे मेवे, किशमिश, खजूर, बादाम

आदि का नैवेद्य विशेष प्रिय है। पूजा-साधना में लाल रंग का आसन, माला, लाल

चन्दन, कुंकुम, लाल बत्ती का घी या तेल का दीपक, लाल रंग के पुष्प प्रयोजनीय

हैं। यदि पुष्प कनेर या कमल के हों तो उत्तम होते हैं। हवन में अन्य वस्तुओं के

साथ लाल चन्दन का विशिष्ट प्रयोग किया जाता है। घृत से हवन करें। मिष्टान्न

फल आदि भी लाल रंग के ही प्रयुक्त करें। पहनने के वस्त्र भी लाल रंग के होने

चाहिए। सूखे नारियल के गोले में लाल चन्दन मिला कर एवं घी (घृत) भरकर

बलि पूर्णाहुति के समय देनी चाहिए। 

 ध्यान

  अनोग्र  स्वशरीरस्य नाभिनीरज सङ्गताम् ।

निर्लेपां निर्गुणां सूक्ष्मां बाल चन्द्र सम प्रभाम् ॥

समाधि मात्र गम्यां तु गुण त्रितय वेष्टिताम् ।

कालातीतां गुणातीतां मुक्ति भुक्ति प्रदायिनीम् ॥

प्रत्यालीढ पदां दधतीं छिन्नं शिरः कर्त्रिका |

छिन्न मस्ता भजे देवीं सर्व सौख्य प्रदायिनीम् ॥

देवी अपने एक पैर को आगे बढ़ाए हुए हैं। उनके बाएं हाथ में उनका स्वयं

का ही कटा हुआ छिन्न मस्तक है। इसी कारण उनका नाम छिन्नमस्ता है। उनकी

जिह्वा बाहर निकली हुई है। कबन्ध से निकली हुई रुधिर की धारा को वह स्वयं

पी रही हैं। बिखरे हुए खुले केश हैं। दाएं हाथ में कैंची (कर्तृरी) है। मुण्डमाला

धारण किए हुए हैं। निर्वस्त्र (दिगम्बर वेश) हैं। नाग का यज्ञोपवीत धारण किए

हुए हैं। बाल चन्द्र के समान हैं तथा शरीर का वर्ण आभा युक्त है। वह त्रिगुणों से

परे काल चक्र से परे मुक्ति-भुक्ति देने वाली हैं। सर्वसुख संपदा प्रदान करती हैं।

योगीजनों को समाधि अवस्था में दर्शन देती हैं। ऐसी भगवती छिन्नमस्ता देवी का

मैं ध्यान करता हूं, भक्ति व नमस्कार करता हूं।

 हूं बीजात्मिका देवी मुण्डकर्तृधरापरा।

हृदयं पातु सा देवी वर्णिनी डाकिनीयुता ॥

श्रीं ह्रीं हुं ऐं चैवदेवीं पूर्वस्यां पातु सर्वदा।

सर्वांगं मे सदा पातु छिन्नमस्ता महाबला ॥

वज्रवैरोचनीये   हूं फट् बीजसमन्विता ।

उत्तरस्यां तथाग्नौ च वारुणे नैऋतेऽवतु ॥

इन्द्राक्षी भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी ।

सर्वदा पातु माम् देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै ॥