तन्त्र क्या है ?

साधना एवं मानव की इच्छापूर्ति के धार्मिक मार्ग तीन प्रकार के हैं। तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र साधना एवं इच्छापूर्ति का प्रत्यक्ष मार्ग तन्त्र है। है तो यह बहुत कठिन। किन्तु साधक के लिये यह एक व्यावहारिक मार्ग है। ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म इसमें सम्मिलित हैं। इसके द्वारा साधक भोग और योग दोनों प्राप्त कर सकता है
बिना गुरु के सान्निध्य के यह ज्ञान नहीं प्राप्त होता है गुरु से आज्ञा लेकर ही इस पद्धति में जाना चाहिये अन्यथा कहीं गलती होने पर इसका परिणाम भी गलत होता है। अतः इसका पूर्ण ज्ञान होना जरूरी है अतः पाठकों से मेरा अनुरोध है कि गुरु की आज्ञा से पूर्ण जानकारी प्राप्त करके ही तन्त्र सिद्धि में हाथ लगावें या मन्त्रों का प्रयोग करें। परोपकारी, ईमानदार तथा सभ्य, सदाचारी व्यक्ति ही मन्त्रों का उपयोग करने के अधिकारी हैं। नास्तिक व्यक्ति को यह तन्त्र नहीं बताना चाहिये। मन्त्र अपने आप में एक दुधारू तलवार है। इसका प्रयोग सही ढंग से करने पर लाभकारी होगा तथा गलत प्रयोग करने पर विनाशकारी होगा। साधना की थी भगवान बुद्ध ने। साधना की थी लंकेश रावण ने। साधना की थी भगवान श्री रामचन्द्र ने। साधना की थी स्वामी विवेकानन्द ने। साधना की थी श्री रामकृष्ण परमहंस ने। साधना की थी श्री देवरहा बाबा ने। साधना की थी त्रिदंडी स्वामी  ने। साधना की थी कबीर ने। तन्त्र उद्देश्य तक पहुँचने का एक
मार्ग है। यह शीघ्र गन्तव्य स्थान तक पहुँचाता है।

बिना श्रद्धा विश्वास के इस शास्त्र में अपना दिमाग लगाना अनुचित होगा। कुलार्णव तन्त्र में कहा गया है कि सतयुग में श्रुति के नियमानुसार धर्म करना लाभदायक एवं कल्याणकारक होता है त्रेतायुग में स्मृति के नियमानुसार धर्म करना लाभदायक एवं कल्याणपरक होता है। द्वापर में पुराण के अनुसार धर्म करना लाभदायक तथा कल्याणकारी होता है। कलियुग में तन्त्र शास्त्र के अनुसार धर्म करना लाभदायक एवं कल्याणकारी होगा।

यथा-
“कृते श्रुत्युक्ताचार स्त्रेतायां स्मृति संभवः ।

द्वापरे तु पुराणोक्तं कलौवागम केवलम् ॥”


साधना में मन्त्र की सिद्ध देवियों का तथा मन्त्रों का प्रयोग बिना गुरु की आज्ञा के नहीं करना चाहिये। तन्त्र विज्ञान में गुरु शब्द का बहुत महत्त्व है। कहा गया है-“गुरु: ब्रह्मा गुरुः विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो गुरुर्गति । शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ॥”

तन्त्र साधना मूलतः तीन विचारों पर आधारित है-

१. गुरु,
२. तन्त्र,

३. देवता ।

तन्त्र में तीनों समाविष्ट हैं। इन तीनों का साकार रूप गुरु है। ऋग्वेद में कहा गया है-
अक्षेत्रवित् क्षेत्रविद् मह्य प्राट ।
सम्प्रति क्षेत्र विद्वानुं शिष्टः ॥
एवद् वै भद्रमनुशासन स्योत।
श्रुतिम् विन्यत्यन्न सीनाम् ॥


योगिनी तन्त्र भी कहता है-
मन्त्रप्रदान काले ही मानुषे नगवन्दिनी
अधिष्ठानं भवेत् तन्त्र महाकालस्य शंकरी
अतोना गुरुतो देवी मानुषे नात्रः संशयः ।

यही कारण है कि संस्कार में गुरुमुख करना भी एक पद्धति है। गुरु साधक की रक्षा करता है। मन्त्र जप द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का विधान है। मन्त्र के उच्चारण से मुख से एक प्रकार की ध्वनि निकलती है जब वह ध्वनि-समूह एक लय में बंध जाता है तो आकाश में स्थाई रूप से फैल जाता है। जिससे सम्बन्धित मन्त्र
लय रहता है उससे टकराता है और पुनः मन्त्र ध्वनि जहाँ से आई है उससे उसका सम्बन्ध बनता है। तब कहीं कहीं मन्त्र फलप्रद हो जाता है। यह एक वैज्ञानिक तथा यथार्थ स्वरूप है । मन्त्र शास्त्र में यह मन्त्रों की शल्य चिकित्सा पद्धति है जिसके माध्यम से कामना सिद्धि में देर नहीं लगती। दूरदर्शन, आकाशवाणी, विद्युत प्रवाह के प्रायौगिक नियम के अनुसार मन्त्र सिद्धि भी सत्य है।
इसके द्वारा मारण, मोहन, उच्चाटन, स्तम्भन, इष्ट देव-देवी सिद्धि, आकर्षण, विद्वेषण की क्रिया की जाती है। कानूनी एवं नैतिक दृष्टि से मारण प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये। इसका दुष्परिणाम करने वालों को भोगना पड़ता है। अतः समाज की भलाई प्रयोग कोई भी किया जा सकता है। ‘शारदा तिलक’ में गुरु की महिमा निम्न शब्दों में की गई है।


दिव्य ज्ञानं यतो दद्यात् कुर्यात् पापस्य संज्ञयः ।
तस्मात् दीक्षेति संप्रोक्ता देशि कैस्तंत्र वेदिभिः ॥

शिष्य भी शुद्ध आत्मा से जागरूक, नैतिकता से युक्त आज्ञाकारी एवं अनुशासित रहे तो गुरु का आशीर्वाद उसे मिल सकता है। जिससे मन्त्र सिद्धि एवं तन्त्र सिद्धि में आसानी होती है। गुरु शिष्य की गलतियों को अपने ऊपर लेकर हटा देता है। मन्त्र साधना अति गोपनीय है इसे अन्यत्र प्रकाशित नहीं करना चाहिये।तन्त्र साधना परोपकार के लिये तथा यश के लिये किया जाता है। दूसरों का कल्याण होने पर उसे बिना माँगे सब कुछ मिल जाता है। दूसरों से अपनी रक्षा भी की जा सकती है परन्तु इसका दुरुपयोग कभी नहीं करना चाहिये। फिर भी बिना गुरु की आज्ञा इसका प्रयोग वर्जित है। आप गुरु नहीं मिलने पर इष्ट देव को ही गुरु मान सकते हैं। एकलव्य द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर गुरु मानकर धनुर्विद्या में प्रवीण हो गया। अतः श्रद्धा, विश्वास एवं प्रेम तन्त्र का अमोघ बाण है। अतः बिना सोचे समझे कोई कदम न उठायें। गुरु के सान्निध्य के कारण मन्त्र सिद्धि में आई दिक्कतों को आसानी से हटाया जा सकता है। तन्त्र साधकों को चाहिये कि अधिक-से-अधिक सुगम रूप से अपनी मनोकामना सिद्धि कर सकते हैं। अगर प्रयोग व साधना ठीक से किया गया तो प्रभाव अवश्य उत्तम प्राप्त होगा।