अंक ज्योतिष अपने-आप में एक नवीन विकसित विज्ञान है,
जिसका पूरा आधार गणित और उससे निसृत फल है। इसका मूल
आधार किसी भी व्यक्ति की जन्म तारीख आदि से है ।
इससे पूर्व भारतीय ज्योतिष विज्ञान में दो पद्धतियाँ विशेष रूप
से प्रचलित थीं जिनमें एक जन्म-कुण्डली से भविष्य-विवेचन तथा
दूसरा हाथ की रेखाओं से भविष्य को स्पष्ट करना था।
परन्तु पाश्चात्य देशों में इसके अतिरिक्त एक और पद्धति प्रचलित
हुई जिसका मुख्य आधार जन्म तारीख ही रहा। उन्होंने जन्म तारीब
के माध्यम से ही पूरे भविष्य को स्पष्ट करने का तरीका स्पष्ट किया।
परन्तु सही रूप में देखा जाए तो यह पाश्चात्य ज्योतिष नहीं है अपितु
इसका मूल उद्गम भारतीय ज्योतिष ही रहा है क्योंकि भारतीय ज्योतिष
में अष्टक वर्ग एक प्रामाणिक विवेचन रहा है और ज्योतिष सिद्धांतों
में यह कहा गया है कि जो अष्टक वर्ग का बिना अध्ययन किए ही
भविष्य स्पष्ट करता है वह अपूर्ण ज्योतिषी होता है और उसका
भविष्य पूर्ण रूप से प्रामाणिक नहीं हो सकता।ग्रह
इसका मूल कारण यही है कि भारतीय ज्योतिष में अष्टक वर्ग
को सबसे अधिक मान्यता दी गई है और इस ज्योतिष अष्टक वर्ग
से ही ग्रहों का बल निकालकर उसका स्पष्ट विवेचन किया गया है
वास्तव में ही ज्योतिष अष्टक वर्ग अपने-आप में प्रामाणिक
विवेषन है। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि जन्म-कुण्डली में जो
स्थित हैं वे कितने बलवान हैं, दो ग्रहों का परस्पर सम्बन्ध कितना
सुदूक है तथा किस ग्रह को कितनी रेखाएँ प्राप्त हुईं। इन रेखाओं
के अध्ययन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जो दो ग्रह एक ही माव
में बैठे हैं उनमें कौन-सा ग्रह ज्यादा बलवान है और उसका प्रभाव दूसरे
ग्रह पर कितना है। यही नहीं, अपितु इससे यह भी स्पष्ट हो जाता
है कि प्रतिशत के हिसाब से भी दोनों ग्रहों का बल कितना है और
मानव के भविष्य निर्माण में किस ग्रह का योगदान ज्यादा है।
परन्तु आधुनिक रूप में हम जिसे अंक ज्योतिष कहते हैं, वह सर्वथा
इससे भिन्न है । अंक ज्योतिष मूलतः भारतीय धरातल पर उत्पन्न
हुआ है परन्तु यह फला-फूला विदेशी धरती है। वहीं पर इसपर शोध
हुई और इस सम्बन्ध में कई नये प्रयोग हुए और इस प्रकार एक
नवीन ज्योतिष का जन्म हुआ जिसे आजकल की भाषा में अंक ज्योतिष
कहते हैं।
इसका मूल आधार अंक हैं और एक से नो तक के अंक विशेष
महत्त्व रखते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार भी अंक का शोध सबसे पहले
भारत में ही हुआ था और शून्य की खोज करके भारत ने गणित क्षेत्र
में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन ला दिया था, क्योंकि इस शून्य
बहुत बड़ी-बड़ी संख्याओं से पिण्ड छुड़ा दिया और शून्य के माध्यम से
हम बड़ी संख्याओं को भी संक्षेप में लिख सके ।
भारतीय महर्षियों के अनुसार भी एक से नौ तक के अंकों में विशेष
विद्युत् प्रवाह है और इनका जब भी उपयोग किया जाता है तब एक.
विशेष प्रकार की चुम्बकीय शक्ति पैदा होती है जो कि आसपास के
बातावरण को चुम्बकीय बना देती है ।पाश्चात्य अंक ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक अंक का अधिपति एक ग्रह है और उस ग्रह के अनुसार ही उस अंक की शक्ति,प्रगति और स्वभाव है। उनके अनुसार अंक और सम्बन्धित ग्रह इस
प्रकार हैं:
अंक
१ सूर्य
२ चन्द्रमा
३ गुरु
४ सूर्य या हर्शल
५ बुध
६ शुक्र
७ वरुण या नेपच्यून
८ शनि
९ मंगल
इस प्रकार प्रत्येक अंक का अधिपति एक ग्रह है और उस ग्रह के
अनुसार ही अंक की प्रगति भी है । अतः अंक को समझने से पूर्व ग्रह
तथा उसकी प्रकृति को समझना उचित रहेगा ।
नीचे में प्रत्येक अंक व उससे सम्बन्धित ग्रह का संक्षिप्त कारकत्व
स्पष्ट कर रहा हूँ :
१. सूर्य-यह समस्त ग्रहों का अधिपति ग्रह है और अन्य सभी ग्रह
इसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इसका स्वभाव अत्यन्त तेजस्वी और
उग्र होता है तथा यह पुल्लिंग और राजस्व गुण वाला है। विशेष रूप
से यह बात्मसिद्धि, पिता, जंगल, विदेश यात्राएँ, भ्रमण, सिरदर्द और
मानसिक चिन्ताओं का कारक है । इसका प्रभाव विशेष होता है ।
२. चन्द्रमा- यह स्त्री जातक ग्रह है। पुरुषार्थ मानव प्रकृति
आदि का अध्ययन इसी ग्रह के माध्यम से किया जाता है । यह राजस्व
गुण वाला है तथा इसकी स्थिति सूर्य के बाद विशेष महत्त्वपूर्ण मानी
गई है। यह शीघ्रगामी है अतः यह जातक को तुरन्त लाभ या हानि
पहुंचाने की क्षमता रखता है । यह मन मोर तत्सम्बन्धी कार्य, सुगन्धित
द्रव्य, पानी, माता, आदर, सम्मान, श्रीसम्पन्नता, एकान्तप्रियता, सर्दी-
जुकाम, चर्म रोग और हृदय रोग का कारक ग्रह है।
३. गुरु- यह देव गुरु कहलाता है, अतः इसका स्वभाव सरल
तथा सन्ताम, सन्तान-सुख, विद्या, इन्द्रिय-निग्रह, राज्य-सम्मान, लाभ,
कीर्ति और पवित्र व्यवहार आदि का विशेष विचार इस ग्रह के माध्यम
से सम्भव है ।
४. हर्शल – यह ग्रह अपने आप में विशेष अधिकार सम्पन्न है,
और मानव की उन्नति, विदेश प्रवास, विदेश में स्थायित्व आदि पर
इसका विशेष प्रभाव माना गया है । इस ग्रह से सम्बन्धित व्यक्ति
जीवन में जन्म-स्थान की अपेक्षा किसी अन्य स्थान पर विशेष सफलता
प्राप्त करता है और जीवन में भाग्योदय भी विदेश में ही होता है।
५. बुध – इस ग्रह का विशेष अधिकार कंधे, गर्दन तथा भाव-
नामों पर रहता है । यह नपुंसक लिंगी तथा सात्विक गुण वाला है।
यह ग्रह वेद, पुराण, ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन, साक्षी, राज्य-व्यापार,
वैद्यक, कुष्ठ रोग, संग्रहणी आदि का कारक है । ऐसा व्यक्ति व्यापार
अथवा लेन-देन के कार्यों में निपुण होता है तथा व्यापार के माध्यम
से ही इस प्रकार के व्यक्ति का भाग्योदय होता है।
६. शुक्र—यह विशेष रूप से प्रतिभावान ग्रह है और इसका
प्रभाव व्यक्तित्व तथा चेहरे पर विशेष रूप से रहता है। यह स्त्रीलिंगी
तथा राजस्व गुण वाला ग्रह है और इस प्रकार के व्यक्ति शौक-मोज
करने वाले तथा प्यार में निपुण होते हैं ।
विवाह, सगाई, सम्बन्धविच्छेद, तलाक तथा द्यूत, भोग-विलास,
प्रेमी-प्रेमिका सुख, संगीत, चित्र, कला-निपुणता, छल-कपट, कोषा-
ध्यक्षता, मानाध्यक्षता, विदेश गमन, स्नेह-स्निग्धता, प्रमेह रोग आदि
का कारक ग्रह है |
ऐसे व्यक्ति वास्तव में ही जीवन का पूर्ण आवन्द लेने वाले होते हैं
और अपने जीवन में सभी प्रकार से भौतिक सुख प्राप्त करने में
विश्वास रखते हैं।
७. वरुण – यह ग्रह जल से सम्बन्धित है। ऐसे व्यक्तियों का भाग्यो-
दय वर्तमान स्थान से दूर नदी-तट या समुद्र-तट के किनारों वाले शहर
में विशेष रूप से होता है। ऐसे व्यक्तियों को चाहिए कि वे व्यापार में
विशेष रुचि लें और इस प्रकार के व्यापार जिनका सीधा सम्बन्ध जल
से हो तो ये विशेष लाभ उठा सकते हैं ।
८. शनि-यह ग्रह मंदचर होने के साथ-साथ अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण
है और यह नपुंसक लिंगी तथा सामस स्वभाव वाला ग्रह माना जाता
है। यह आयु, मृत्यु, चोरी का कार्य, द्रव्य की हानि, घाटा, दिवाला,
बन्धन, जेल, मुकदमा, फाँसी, शत्रुता, राजमय, त्यागपत, गठिया
तथा वायु सम्बन्धी रोगों का कारक है।
इससे सम्बन्धित व्यक्ति एक अच्छे वकील और अच्छे मशीनरी
सम्बन्धी जानकार हो सकते हैं ।
९.। मंगल – यह विशेष उग्र स्वभाव का ग्रह है और पुल्लिंगी तथा
तामस ग्रह होने के कारण इसका व्यवहार अपने-आप में विशिष्ट
होता है ।
यह ईमानदारी, जमींदारी, रोग, मानसिक आघात, बड़े भाई
का सुख, एक्सीडेण्ट, गरीबी, शूरता, चालाकी आदि का विशेष कारक
ग्रह है।
इस प्रकार का व्यक्ति लेन-देन, खेती-जायदाद, पशुओं का लेन-देन
तथा कपट-व्यवहार आदि में विशेष सफल माना जाता है।